खुद को ढूंढ़ने का क्या अजीब खेल है यह

प्याज़ की परत-दर-परत छीलते जाओ
पर क्या पाने के लिए ?
क्या हासिल करने के लिए?
क्या आंसू बहाने के लिए?

बस, यह जानने के लिए की अंदर कुछ नहीं है।
अंदर खालीपन है बस।

वाह कन्हैया वाह! क्या लीला रची है!
क्या अनूठा खेल है!

ताज्जुब की बात तो ये है कि
जब हमारी परते नहीं जमी थीं,
जब हम मासूम थे,
तब हमे मालूम न था।

अब हमे मालूम है
पर अब मासूमियत लापता है।

बस परते जमीं पड़ी हैं दिखावे की ।